Badrinath Dham : बद्रीनाथ में स्त्रीवेश में क्यों पूजा करते हैं पुजारी ?, रहस्य जानकर आप भी हो जाएंगे हैरान

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बद्रीनाथ धाम जो अपने आप में अनगिनत रहस्यों का भंडार है। लेकिन उन सब में से सबसे खास यहां की रावल परंपरा है। ये परंपरा ना सिर्फ श्रद्धालुओं के लिए कौतूहल का विषय है, बल्कि इसके पीछे छिपा रहस्य और इतिहास भी अद्भुत है। हर किसी के मन में ये सवाल उठता है कि आखिर भगवान बद्रीनाथ की मूर्ति को सिर्फ रावल ही क्यों छू सकते हैं? ये सम्मान सिर्फ रावलों को ही क्यों मिला हुआ है ? क्यों रावल स्त्री वेश में आकर बद्रीनाथ धाम की पूजा करते हैं ?


चमोली में बर्फ से ढके नर और नारायण पर्वतों के बीच उफान मारती अलकनन्दा नदी के तट पर श्री हरी विष्णु का पावन धाम बद्रीनाथ बसा है। जिसे भू-वैकुंठ के रूप में भी जाना जाता है। यहां भगवान विष्णु की बद्रीनारायण रूप में पूजा की जाती है। बद्रीनाथ मंदिर के पुजारी रावल होते हैं।

कैसे हुई रावल परंपरा की शुरूआत ?
पंडित हरिकृष्ण रतूड़ी की किताब गढ़वाल का इतिहास की मानें तो शंकराचार्य केरल के नंबूरी ब्राहमण थे और ये ही बद्रीनाथ के मुख्य पुजारी भी रहे। कहा जाता है कि सन्यास लेते वक्त उनकी माता ने उनसे अनुरोध किया था कि अगर तुमने सन्यास लिया तो तुम मेरी अंत्येष्टि नहीं कर पाओगे। तब शंकराचार्य ने अपनी मां को वचन दिया था की मैं सन्यासी होने के बाद भी तुम्हारी अंतेष्टि करुंगा।

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बद्रीनाथ धाम
जब शंकराचार्य की माता का देहांत हुआ तब उनकी जाति के लोगों ने शंकराचार्य के हाथों अंत्येष्टि का विरोध करना शुरु कर दिया। इसके बाद शंकराचार्य ने अपनी माता का शवदाह अपने हाथों से अपने ही घर के आंगन में कर दिया। उस वक्त उनके दो रिश्तेदार उनके साथ थे जिसमें एक चोली जाति और दूसरा मुकाणी जाति के ब्राहमण थे। बाद में शंकराचार्य ने इन दोनों जातियों को अपने निर्माणित इलाकों में अपने साथ स्वामित्व दे दिया।

क्यों सिर्फ रावल ही छू सकते हैं बद्री विशाल की मूर्ति ?
आपको बता दें कि भगवान बद्री विशाल की मूर्ति को केवल यहां के पुजारी जो कि रावल होते हैं वो ही छू सकते हैं। लेकिन क्या आप जानते हैं कि रावलों को ही बद्री विशाल की मूर्ति छूने का अधिकार क्यों है ? दरअसल रावल केरल के उच्च कोटी ब्राह्मण होते हैं। इसके साथ ही वो आदि गुरु शंकराचार्य के वंशज भी है। लिहाजा शंकराचार्य ने अपने निर्माणित क्षेत्रों का स्वामित्व रावलों को दे दिया था। इसलिए बद्री विशाल की मूर्ती को छूने का विशेषाधिकार सिर्फ रावलों को ही है।

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भगवान बद्री विशाल की मूर्ति
हांलाकि बद्रीनाथ के रावल केरल राज्य के चोली, नंबूरी या मुकाणी जाति के ब्राहमण ही होते हैं और यही बद्रीविशाल की पूजा भी करते हैं। लेकिन जब बद्रीनाथ में रावल मौजूद नहीं होते तो स्थानीय डिमरी समुदाय के ब्राह्मण बद्रीविशाल की पूजा करते हैं। आपको बता दें कि डिमरी समुदाय के ब्राह्मण रावलों के सहायक होते हैं ये बद्रीनाथ धाम में भोग बनाते हैं। बीते 400 सालों के इतिहास की बात की जाए तो चार बार डिमरी समुदाय के लोगों ने रावल की अनुपस्थिति में बद्रीविशाल धाम में पूजा की है।

बद्रीनाथ में स्त्रीवेश में क्यों पूजा करते हैं पुजारी ?
जिस दिन बद्रीनाथ के कपाट बंद होते हैं उस दिन रावल स्त्रीवेश में पूजा करते हैं। ये सवाल हर किसी के मन में उठता है कि आखिर क्यों रावल स्त्रीवेश में ही पूजा करते हैं ? तो दरअसल पहाड़ में रावल को लोग भगवान की तरह पूजते हैं। उन्हें पार्वती का रूप भी माना जाता है। मान्यता है कि माता लक्ष्मी को कोई भी पर पुरुष स्पर्श नहीं कर सकता इसलिए रावल माता लक्ष्मी की सखी यानी माता पार्वती का वेश बनाकर मां लक्ष्मी के विग्रह को उठाते हैं।

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माता लक्ष्मी
रावल बनने के लिए ये योग्यताएं हैं जरूरी
रावल को शास्त्रों में निपुण होना जरूरी होता है। इनका चयन बद्रीनाथ मंदिर समिति करती है। इनकी न्यूनतम योग्यता ये है कि इन्हें वेद-वेदांग विद्यालय का स्नातक और कम से कम शास्त्री की उपाधि प्राप्त होनी चाहिए। पहले से रावलों का ब्रह्मचारी होना भी जरूरी था लेकिन वक्त के साथ ये नियम बदल गया। रावल सिर्फ महंत या सन्यासी ना होकर गृहस्थ भी होने लगे। इसके साथ एक शर्त भी रखी गई की अगर किसी रावल को गृहस्त होना है तो उसे रावल का पद छोड़ना पड़ेगा। पुराने रावल द्वारा पद छोड़ने के बाद नए रावल की नियुक्ति की जाती है।

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बद्रीविशाल
नये रावल की नियुक्ति में त्रावणकोर के राजा की ली जाती है सहमति
आपको बता दें कि बद्रीनाथ धाम के पुजारी यानि रावल की नियुक्ति के वक्त त्रावणकोर के राजा की सहमति ली जाती है। रावल सिर्फ मंदिर के कपाट बंद होने के बाद ही अलकनंदा नदी पार कर सकते हैं। सर्दियों के वक्त छह महीने के लिए बद्रीनाथ धाम के कपाट बंद होते हैं तभी रावल अपने घर केरल जा सकते हैं। कपाट खुलने की तिथि के साथ ही रावल वापस बद्रीनाथ आ जाते हैं