कांग्रेस का कौन होगा नया कप्तान?

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उत्तराखंड कांग्रेस अध्यक्ष गणेश गोदियाल ने इस्तीफा दे दिया है। अब बड़ा सवाल यह है कि कांग्रेस किसका नया कप्तान बनाएगी। चर्चाओं का दौर चल रहा है। केवल कांग्रेय प्रदेश अध्यक्ष ही नहीं, बल्कि नेता प्रतिपक्ष के लिए भी लॉबिंग शुरू हो गई है। अब तक प्रदेश कांग्रेस कमेटी की कमान पांच अध्यक्षों ने संभाली है। छठा अध्यक्ष कौन होगा, सियासी फिजाओं में कई नाम तैर रहे हैं। संभावना जताई जा रही है कि गोदियाल को भी फिर से कमान सौंपी जा सकती है।

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नेता प्रतिपक्ष का दायित्व गढ़वाल से प्रीतम सिंह के पास है। सवाल यह है कि क्या पार्टी उनको नेता प्रतिपक्ष बनाए रखेगी या फिर उनकी जगह किसी और को नेता प्रतिपक्ष बनाया जाता है। ऐसे में पार्टी के सामने गढ़वाल और कुमाऊं के बीच संतुलने भी बनाना होगा। सीएम पुष्कर सिंह धामी को हराकर विधायक बने भुवन कापड़ी पर पार्टी दांव खेल सकती है। भुवन यूथ कांग्रेस के निर्वाचित अध्यक्ष रह चुके हैं और पार्टी का युवा चेहरा हैं।
वहीं, तीसरी बार विधायक बने मनोज तिवाड़ी का नाम भी चर्चाओं में है।

मनोज वर्ष 2007, 2012 और अब 2022 में अल्मोड़ा सीट से विधायक चुने गए हैं। करीब 12 साल एआईसीसी में सचिव पद पर रहे प्रकाश जोशी को भी प्रदेश अध्यक्ष की कमान सौंपी जा सकती है। संगठन का लंबा अनुभव रखने वाले मथुरादत्त जोशी और राजेंद्र भंडारी का नाम भी चर्चाओं में है। कांग्रेस फिलहाल इस बात भी इंतजार करेगी कि भाजपा किसे सीएम बनाती है। अगर भाजपा किसी दिग्गज नेता पर दांव खेलती है तो कांग्रेस भी किसी दिग्गज नेता पर दांव लगा सकती है।


राज्य में कांग्रेस की सरकार और संगठन पर नजर डालें तो अब तक मुख्यमंत्री, प्रदेश अध्यक्ष और नेता प्रतिपक्ष के चयन में गढ़वाल-कुमाऊं के साथ जातीय समीकरणों को साधकर पार्टी आगे बढ़ी है। वर्ष 2000-2007 के मध्य हरीश रावत प्रदेश अध्यक्ष बने, तब इंदिरा हृदयेश को सीएलपी नेता चुना गया। वर्ष 2007 से लेकर 2014 तक प्रदेश अध्यक्ष की कमान यशपाल आर्य के हाथों में रही। उस वक्त हरक सिंह रावत सीएलपी नेता बने।
2014-17 के मध्य किशोर उपाध्याय प्रदेश अध्यक्ष बने तो मुख्यमंत्री के तौर पर हरीश रावत के हाथों में सत्ता की कमान रही। 2017 में प्रीतम सिंह को प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया तो इंदिरा हृदयेश को नेता प्रतिपक्ष की कमान सौंपी गई। विधानसभा चुनाव से पहले ही कांग्रेस में प्रदेश अध्यक्ष और नेता प्रतिपक्ष के चुनाव को लेकर धड़ों में तलवारें खिंच गईं थी। पूरे चुनाव में पार्टी नेताओं ने एकता दिखाने की कोशिश की, लेकिन भीतर गुटबाजी की खिचड़ी पकती रही। नतीजा हार के रूप में सामने आया।