उत्तराखंड में यहां 300 सालों से नहीं मनाई गई होली, इस बात का है डर

ख़बर शेयर करें




रंगों का त्योहार होली आखिर किसे पसंद नहीं है। देश भर में होली का त्योहार धूमधाम से मनाया जाता है। अलग-अलग जगह पर लोग इसे अलग-अलग तरह से मनाते हैं। कहीं खड़ी और बैठकी होली होती है, कहीं लठमार तो कहीं फूलों की होली खेली जाती है। लेकिन क्या आप जानते हैं की उत्तराखंड में कुछ ऐसी जगहें हैं जहां होली के इन रंगों को उड़ाना अशुभ माना जाता है। उत्तराखंड के करीब 100 से भी ज्यादा गांव एसे हैं जहां पर कभी होली नहीं खेली गई।

Ad
Ad


होली के मौके पर उत्तराखंड का हर गांव और गली में गुलाल, पिचकारी, रंग-बिरंगे गुब्बारों और पकवानों से सज जाती है। खड़ी और बैठकी होली के गीतों से सारा उत्तराखंड गुंजने लगता है। लेकिन इसी उत्तराखंड में एक जगह ऐसी भी है जहां 300 से ज्यादा सालों से होली खेली ही नहीं गई है। माना जाता है की अगर इस जगह कोई रंग खेलने की गलती करता है तो उसे सीधा मृत्यु दंड मिलता है।

दरअसल उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग में क्वीली कुरझण और जोंदला नाम के तीन गांव हैं। जहां का हर एक शख्स रंगों से कतराता है। आपको बता दें की इन तीन गांवों में पिछले 372 सालों से होली नहीं खेली गई है। ग्रामीणों का कहना है की तीन सदी पहले वो जम्मू-कश्मीर से यहां आकर बसे थे और इतने दशकों में उन्होंने आज तक कभी होली नहीं मनाई और तो और वो होली के रंगों को उड़ाना भी अपशकुन मानते हैं।

ऐसा नहीं है गांव वालों ने कभी होली खेलने की कोशिश नहीं की
ऐसा नहीं है की इन गांव वालों ने कभी होली मनाने का प्रयास ना किया हो। गांव वालों के मुताबिक सालों पहले जब इस गांव में होली खेली गई तो पूरे इलाके में हैजा फैल गया। जिस वजह से लोगों की मौत होने लगी। इस परेशानी से निजात पाने के लिए गांववालों ने जब अपने ईष्ट देव के द्वार खटखटाए तो उन्हें पता चला की सारे गांव को क्षेत्रपाल और उनकी ईष्ट देवी का दोष लगा है। उनके देव गांव वालों के होली खेलने से रुष्ट थे।

इसके अलावा एक बार और गांव वाले गांव में होली की शुरुआत करने के लिए मथुरा से चीर लाए लेकिन गांव पहुंचने से पहले ही वो चीर चोरी हो गई जिसे गांव वालों ने अपशकुन माना। जब-जब इन गांवों में होली खेलने की कोशिश की गई तब तब यहां किसी ना किसी की अकाल मृत्यु हो गई। इन घटनाओं के बाद दोबारा इस गांव के किसी शख्स ने होली खेलने की जुर्रत नहीं की।

मां त्रिपुरा सुंदरी को पसंद नहीं होली के रंग और हुड़दंग
ग्रामीणों का मानना है कि जब वो जम्मू-कश्मीर से यहां आकर बसे तो वो अपनी ईष्टदेवी मां त्रिपुरा सुंदरी को भी अपने साथ ले आए और उन्हें गांव में स्थापित कर दिया। आपको बता दें की मां त्रिपुरा सुंदरी को वैष्णों देवी की बहन माना जाता है। कहा जाता है की माता त्रिपुरा सुंदरी को होली के रंग और हुड़दंग पसंद नहीं है और अगर कोई ऐसा करता है तो वो इससे नाराज हो जाती हैं। अपनी ईष्ट देवी को खुश रखने के लिए रुद्रप्रयाग के ये गांव वाले होली नहीं मनाते हैं।

धारचूला, मुनस्यारी और डीडीहाट में भी नहीं मनती होली
चीन और नेपाल सीमा से लगे कुछ गांव भी होली की चहल पहल और रंगों से दूर रहते हैं। जिनमें धारचूला, मुनस्यारी और डीडीहाट शामिल हैं। इन तीनों जगहों के कई गांवों में होली नहीं खेली जाती। जिसकी कोई एक वजह नहीं है बल्कि अलग अलग वजहें बताई जाती हैं।

मुनस्यारी में माना जाता है की होली खेलने पर कुछ अनहोनी जरुर होती है। वहीं डीडीहाट में रंगों से खेलना अपशकुन माना जाता है और धारचूला में छिपलाकेदार की पूजा होने की वजह से यहां के लोग होली मनाने से परहेज करते हैं। मान्यता है की शिव की भूमि में रंगों का प्रचलन शुरूआत से ही नहीं है जिस परंपरा का पालन यहां के लोग आज तक करते आ रहे हैं।

होली खलने की कोशिश की तो सांप ने रोका रास्ता
स्थानीय लोगों की मानें तो ऐसा नहीं है की यहां के लोगों ने होली खेलने की कोशिश नहीं की जब एक बार कुछ लोग भराड़ी मंदिर में होली खेलने जा रहे थे तो उनका रास्ता सांपों ने रोक लिया था। जिसके बाद होली गाने या होली खेलने वाले लोगों के घर में कुछ ना कुछ अनहोनी होनी शुरू हो गई। कहा जाता है तब से ये लोग भी होली से परहेज करने लगे। यही नहीं यहां के लोगों में अनहोनी का डर इतना है की ये आसपास के गांवों के होली के आयोजन में भी शामिल नहीं होते हैं।