अस्कोट आराकोट अभियान, पहाड़ के गांव, जल-जंगल और जमीन को जानने की खास यात्रा
अस्कोट आराकोट यात्रा इन दिनों इसकी काफी चर्चा हो रही है। साल 2024 में इस यात्रा के 50 साल पूरे हो गए हैं। लेकिन आप जानते हैं कि ये यात्रा क्या है और इसे क्यों किया जाता है ? आपको बता दें कि 1000 किमी से भी लंबी चलने वाली ये यात्रा नदियों, पहाड़ों और बुगयालों के सुंदर नजारों के बीच से होकर गुजरती है।
हर दस साल में होने वाली अनोखी यात्रा है अस्कोट आराकोट अभियान
अस्कोट आराकोट यात्रा पहाड़ में हर दस साल में होने वाली एक अनोखी यात्रा है। कोई भी शख्स जो गांव समाज और पहाड़ को समझना चाहता हो वो एक फार्म भरकर इस यात्रा का हिस्सा बन सकता है। अस्कोट आराकोट यात्रा के दौरान यात्री उत्तराखंड के 350 सूदूर गांव, 35 नदियां, 16 बुग्याल, 20 खरक और 5 जनजाति इलाकों से गुजरते हुए कुल 1150 किमी की दूरी पैदल तय करते हैं।
किसने शुरू किया था इसे ?
अस्कोट आराकोट अभियान की बात करें तो इसे साल 1974 में उत्तरप्रदेश के पहाड़ी इलाके यानी आज के उत्तराखंड के कुछ उत्साही नौजवान पिंडार ग्लेशियर की पदयात्रा से लौटे। उन्होंने इस पर एक रिपोर्ट लिखी। जो दुर्गम पहाड़ी जीवन की विवश्ताओं को बताती थी। ये रिपोर्ट एक स्थानीय समाचार पत्र में भी छपी। जिसके बाद फेमस पर्यावरण कार्यकर्ता सुंदर लाल बहुगुणा की नजर अखबार के इस आर्टिकल पर पड़ी।
सुंदर लाल बहुगुणा खुद एक घुमक्कड़ थे तो लिहाजा उन्होंने ही अल्मोड़ा कॉलेज में पढ़ रहे इन युवाओं से मुलाकात कर इन्हें अस्कोट आराकोट पदयात्रा की सलाह दी। बता दें की अस्कोट उत्तराखंड के पूर्वी छोर पर नेपाल सीमा पर बसा एक छोटा सा कस्बा है और आराकोट उत्तराखंड की पश्चिमी सीमा पर हिमाचल की सीमा से लगा एक गांव है। इस यात्रा में इन दो छोरों के बीच बसे गावों, जंगल और बुग्यालों के बारे में एक रिपोर्ट तैयार की जाती है।
25 मई 1974 को शुरू हुई थी पहली अस्कोट आराकोट यात्रा
शेखर पाठक, शमशेर सिंह बिष्ट, कुंवर प्रसून और प्रताप शिखर जैसे नौजवानों ने सुंदर लाल बहुगुणा की प्रेरणा से 25 मई 1974 में पहली अस्कोट आराकोट यात्रा की। ये यात्रा पिथौरागढ़, अल्मोड़ा, चमोली, टिहरी , देहरादून और उत्तरकाशी होते हुए करीब 350 गांवों को होकर निकली। 15 दिन बाद 8 जुलाई 1974 को आराकोट में समाप्त हो गई।
इसके बाद यहां से PAHAD यानी पीपुल्स एसोसिएशन फॉर हिमालय एरिया रिसर्च जैसी संस्था का जन्म हुआ। जिसने अस्कोट आराकोट अभियान को हर दस साल के अंतराल में दोहराने का निर्णय लिया। हांलाकि इसका मकसद मूल यात्रा मार्ग पर पड़ने वाले गांवो को 10 साल के अंतराल में देखना और इन दौरान हुए बदलावों को समझना था। जो आम तौर पर सरकारी सर्वेस द्वारा अधूरा या फिर नेगलेक्लकटेड रह जाता है।
बिना कोई पैसे खर्च किए की जाती है ये यात्रा
आपको बता दें कि इस अभियान की खास बात ये है कि ये यात्रा पूरी तरह से जन आधारित अभियान है। इसमें बिना कोई पैसे खर्च किए सर्वे यात्रा की जाती है। अस्कोट आराकोट की ये यात्राएं उत्तराखंड के भूगोल, भूगर्भ, इतिहास- समाज, भाषा-संस्कृति, पर्यावरण-विकास, आपदा, पलायन और आर्थिकी जैसे कई मुद्दों को गहराई से समझने का मौका देती है
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